प्रिय पाठको आपका कम्पटीशनगाइडर डाट काम पर पुन: स्वागत है। इस पोस्ट में हम एसएससी स्टेनो 2016 के स्क्िल टेस्ट को ध्यान में रखते हुये एक डिक्टेशन तथा उसका ट्रांसक्रिप्शन पोस्ट कर रहे है।
लोकतंत्र का अर्थ सिर्फ जनता द्वारा वोट डालना और जनप्रतिनिधि का चुन लिया जाना ही नहीं है, बल्कि यह उस परिवेश को भी इंगित करता है जिसमें 'उत्तरदायित्व' का स्थान सर्वोपरि होता है। यहॉ उत्तरदायित्व से तात्पर्य है कि राज्य की संस्थाएं उन संवैधानिक मूल्यों के प्रति कितनी आस्था रखती हैं, जो किसी भी लोकतांत्रिक समाज के लिये बुनियाद का काम करते हैं। निश्चित तौर पर 'न्याय' एक ऐसी ही बुनियाद है जिस पर लोकतंत्र टिका होता है। वैसे तो न्याय एक व्यापक अवधारणा है लेकिन अगर इसे 'विधिक न्याय' तक ही सीमित कर दें, तो भी यह कहा जा सकता है कि इसका अनुपालन न हो पाने की स्थिति में सामाजिक व्यवस्था में विचलन आएगा। इस संदर्भ में एक दिलचस्प पहलू यह है कि न्याय की प्रक्रिया के सुचारू रूप से कार्य न कर पाने की स्थिति में एक ओर जहॉं राज्य की ही संस्थाऍं, यथा- पुलिस, सेना इत्यादि स्वयं त्वरित न्याय करने लगती हैं, वही दूसरी ओर, आपराधिक प्रवृत्ति के लोग न्याय में देरी और उसकी जटिलता का लाभ उठाते हैं। इस पूरे परिप्रेक्ष्य में विगत 31 अक्टूबर को हुई भोपाल जेलब्रेक की घटना और वहॉं से भागे 8 कैदियों की पूलिस एनकाउंटर में मौत को देखें तो कई पहलू उभरते हैं। यहॉं इस चर्चा का उद्देश्य भोपाल में घटिट घटना की खोजी पड़ताल करना नहीं है, बल्कि उससे जुड़े राजनीतिक, सामाजिक, संवैधानिक तथा प्रशासनिक पहलुओं को व्याख्यायित करना है, जो सम्मिलित रूप से इस पूरी प्रक्रिया को जटिल बनाते हैं। अगर इनकाउटंर हमेशा से 'आदर्श स्थिति' में ही होता, तो इसके बारे में बिल्कुल एक राय होती किन्तु एनकाउंटर की ऐसी तमाम घटनाओं के संबंध में राय काफी विविध एवं बँटी हुई है। अत: यह जानना आवश्यक है कि आखिर एक घटना के प्रति दृष्टिकोण में इतनी भिन्नता क्यों है?
इस संबंध में सबसे पहले तो उस स्थिति का उल्लेख करना आवश्यक होगा जिससे निपटने के लिये एनकाउंटर जैसे उपायों को अपनाने की आवश्यकता महसूस की गई। सामान्य परिस्थिति में किसी व्यक्ति को न्यायिक प्रक्रिया के माध्यम से ही जीवना से वंचित किया जाता है, किंतु कुछ विरल परिस्थितियों में इस सिद्धांत में विचलन हो सकता है। आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 46(2) व (3) को यदि सम्मिलित रूप से पढ़ें तो उसका भाव यह है कि 'यदि किसी व्यक्ति पर ऐसे अपराध का आरोप दर्ज हो जिसमें उम्रकैद और मृत्युदंड की सजा हो सकती है और वह व्यक्ति बलपूर्वक स्वयं को गिरफ्तारी से बचा रहा हो, तो संबंधित पुलिसकर्मी या कोई अन्य प्राधिकृत व्यक्ति उसे गिरफ्तार करने का हरसंभव प्रयास कर सकता है, यहॉं तक कि उसके प्राण भी ले सकता है।' जाहिर है कि इस प्रकार की हत्या कानूनसम्मत ही कही जायेगी।
इसी तरह 'सशस्त्र' बल विशेषाधिकार अधिनियम-1958 ' की धारा-4 यह प्रावधान करती है कि 'यदि प्रभावित क्षेत्र में किसी प्राधिकृत सैन्यकर्मी को लोक व्यवस्था बनाए रखने के लिये यह प्रतीत होता हो कि कोई व्यक्ति इसमें रूकावट डाल रहा है तो वह ऐसे व्यक्त्िा को संदेह के आधार पर मार भी सकता है।' इसी तरह, सैन्य शासन स्थापित हो जाने की स्थिति में भी ऐसी कुछ शक्तियॉं सैन्य बलों के हाथों में आ जाती है। हालॉंकि, आदर्श रूप में तो ऐसे कानून या उपाय प्रतिकूल परिस्थितियों से निपटने के लिए बनाए गए हैं, किन्तु हर बार इनका उपयोग इसी रूप में नहीं होता है। कई मौकों पर इसका संदर्भ कुछ और ही होता है। अत: यहॉं उन संदर्भों को भी समझना समीचीन होगा।
यह लेख सन्नी कुमार जी के लेख का एक अंश है
आडियो डिक्टेशन डाउनलोड करने के लिये नीचे दिये गये लिंक से डाउनलोड कर सकते है
आप अपने सुझाव और शिकायत कमेंट बाक्स पर दे सकते हैं।
HINDI SHORTHAND DICTATION AUDION CLIP AND TRANSCRIPTION
Reviewed by TEAM 1
on
January 23, 2017
Rating:
No comments: